सर्दियाँ आती हैं और हम कम्बल बाँटते हैं। लेकिन उससे संतोष कम, दुःख और असंतोष की भावना ही ज्यादा प्रबल होती है। ग़रीबी का ये आलम, देख कर ही यकीन में बदल सकता है। वो मिटटी मैं काम करते करते काले पड़े हाथ और नंगे चलने से फटे हुए पैर . आजादी को 66 साल हो गए लेकिन आर्थिक विषमता का ये वीभत्स चेहरा . कहाँ सोयी है सरकार ? कहाँ हैं वे जन प्रतिनिधि जो हजारों वोटों से यहाँ से जीत कर जाते हैं? क्यों नहीं वे यहाँ कभी लौट कर आते ?
ऐसे कुछ सवाल इस बार इन लोगों के बीच हमने छोड़े हैं? मुक्तिबोध के शब्दों में -
अब अभिव्यक्ति के सारे ख़तरे
उठाने ही होंगे।
तोड़ने होंगे ही मठ और गढ़ सब।
उठाने ही होंगे।
तोड़ने होंगे ही मठ और गढ़ सब।
नगला खना से शुरू कर राजेपुर कुर्रा, मूंज खेड़ा होते हुए हम नगला नकारा पहुंचे। इस दौरान नगला चतुरी और नगला पद्म के साथी भी शामिल हुए जिनमें से कुछ को हम लोग मदद कर पाए। ये मदद भी कोई मदद है ! लेकिन जैसा कि किसी ने कहा है, 'A journey of thousand miles begins with one small step' We surely have taken that small step.
कडाके की इस सर्दी में जो साथी साथ रहे उनका शुक्रिया। ख़ास तौर से प्रभात भाई आपका। अब तो शाहिद को भी शुक्रिया कहना होगा आखिर वो हैदराबाद से चलकर जो आये हैं। धर्मेन्द्र, सुधीर जो लखनऊ से आये और साजिद, मनीष भाई , संजय भाई जिनके कारण ये सब intervention संभव हो पा रहे हैं। आरिफ़ और करुणेन्द्र के कारण कम्बल जुट सके उनको साधुवाद। जिन्होंने इस यात्रा को संभव बनाया कुलदीप भाई , आशीष, वीरभान का धन्यवाद और आभार .