Thursday, April 07, 2011

What a poem !

धुंधली  हुई   दिशाएं,    छाने लगा कुहासा
कुचली हुयी शिखा से आने लगा धुंआ सा .
कोई मुझे बता दे , क्या आज हो रहा है
मुंह को छिपा तिमिर में क्यों तेज सो रहा है?
दाता, पुकार मेरी , संदीप्ति को जिला दे
बुझती हुयी शिखा को संजीवनी पिला  दे
प्यारे  स्वदेश  के  हित  अंगार   मांगता   हूँ
चढ़ती जवानियों का श्रृंगार माँगता   हूँ.


बेचैन हैं हवाएं, सब ओर बेकली है
कोई नहीं बताता किश्ती किधर चली है
मंझधार है भंवर है या पास है किनारा
यह नाश आ रहा है या सौभाग्य का सितारा?
आकाश पर अनल से लिख दे अद्र्ष्ट मेरा
भगवान  इस तरी को भरमा न दे अँधेरा.
तम वेधिनी किरण का संधान माँगता हूँ
ध्रुव की कठिन घड़ी में पहचान मांगता हूँ.


आगे पहाड़ को पा धारा रुकी हुयी है
बल पुंज केसरी की ग्रीवा झुकी हुयी है
अग्निस्फुलिंग राज का बुझ ढेर हो रहा है
है रो रही जवानी, अंधेर हो रहा है.
निर्वाक है हिमालय, गंगा डरी हुयी है
निस्तब्धता निशा की दिन मैं भरी हुई है.
पंचास्य नाद भीषण , विकराल माँगता हूँ
जड़ता विनाश को फिर भूचाल मांगता हूँ.
.......

आंसू भरे दृगों में चिंगारियां सजा दे
मेरे शमशान में आ श्रृंगी ज़रा बजा दे
फिर एक  तीर  सीनों  के आर  पार  कर  दे 
हिमशीत में प्राण में फिर अंगार स्वच्छ भर दे
आमर्ष को जगाने वाली शिखा नयी दे
अनुभूतियाँ ह्रदय में दाता अनलमयी  दे 
विष का सदा लहू में संचार मांगता हूँ
बेचैन ज़िन्दगी का में प्यार मांगता हूँ.


ठहरी हुई तरी को ठोकर लगा चला दे
जो राह हो हमारी उस पर दिया जला दे
गति में प्रभंजनों का आवेग फिर सबल दे 
इस जांच की घड़ी में निष्ठां कड़ी अचल दे
हम दे चुके लहू हैं तू देवता विभा दे
अपने अनल विशिख से आकाश जगमगा दे
प्यारे स्वदेश के हित वरदान मांगता हूँ
तेरी दया विपद में भगवान् मांगता हूँ.

        रामधारी सिंह दिनकर 


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